चोरों की मानिंद
आज जब तुम मेरे सिरहाने आकर लेटे
तो,
एक  अलसाया, तृप्त भाव था तुम्हारे चेहरे पे
वो..जो आता है,
प्रेमिका से एकांत में ढेर सारा पल गुज़ारने के बाद,
पर तुम्हें… जयशंकर प्रसाद की कामायनी पाठ के बाद!
(किस्मत फूटें दोनों की!)

आते ही..
(आश्चर्य!) –
(क्यूँकि घर में आज हम दो के अलावा तीन और हैं..
तुम्हारे माता-पिता और बहन) –
तुमने मेरा हाथ पकड़ा..
(रजाई के अन्दर ही),
तुम्हारी कलाईयों की पकड़ (और हाथों की गर्माहट) ने
बता दिया मुझे…
आज कामायनी ने शायद अधूरा ही छोड़ा तुमने…

ख़ामोशी में (और ख़ामोशी से),
तुमने मेरा चेहरा हाथ में लिया..
(मैंने आँखें बंद कर ली थीं)..
और..
(हमेशा की तरह)
महसूस किया तुम्हें,
अपने होठों पे…

तुम्हारे उन स्पर्शों से मैं अनजान नहीं थी,
पर,
आज वो मुझे चकित कर रहे थे,
क्यूँकि..
उनका होना मैंने जाना है केवल
हम दो के रहते..
ना की…
(उसी कमरे में)
तीन और लोगों के बीच…

अब..
तुम्हारी आँखें कुछ इशारा कर रहीं है…
किस ओर?
पूजा-घर?
अँधेरे में मुझे वहां दिखा,
चार देवता, दो देवी…
एक आसनी और दिन की बुझी अगरबत्तियां…

उसी आसनी पर,
जिस पर बैठ, शायद दिन में तुमने,
आँखें बंद कर, अपने भगवान के आगे सर झुकाया होगा…
अब..
आँखे बंद किये हुए ही,
सर उठाएं,
मुझे बांहों में भर रहे हो…

और ये सब, तब..
जब, तुम्हारे पिता की खर्राटों की आवाज़ कमरे को भर रही है
और माँ और बहन की गहरी नींद को पल पल झकझोर रही है..

तुम मेरा चेहरा अपनी ओर मोड़ लेते हो..
और मैं,
एक कच्ची लता की तरह जो पेड़ के तने से
लिपटी जाती हैं,
तुम्हारे शरीर से एक हुए जाती हूँ..

ऐसे पल में भी,
तुम्हारे चेहरे पे एक शांत, सौम्य भाव है,
एक आभा..जो उस अँधेरे कमरे को
(माता-पिता और बहन के बावजूद),
रोशन कर रहा है.

और मैं सोचती हूँ..
ये आभा किसकी है?
उस पुरुष की जो लोक-लज्जा, नैतिक -अनैतिक, के बन्धनों से परे जा चुका है,
या
उस भगवान् की, जो शायद एक और रासलीला देख
खुद को आने से रोक न पाए..

PS: The poem took off as an attempt to translate this poem, but acquired, somewhere in the middle of the journey, a distinct character of its own.